वसुंधरा
- अतुल श्रीवास्तव
- Aug 30, 2021
- 1 min read
Updated: Mar 29, 2024

जब न रहेगी ये धरा,
तो कुछ न रहेगा धरा।
पल पल जल रहा है जल,
झुर्रियों से ढक रहा है थल,
नद के आक्रोश का प्रकोप है,
कहीं विलुप्त प्रपातों पर शोक है।
धर्म रक्षा हेतु हो रहा सर्वत्र युद्ध,
विषाद नहीं कि क्यों हुई प्रकृति क्रुद्ध,
अंततः जब न रहेगी ये धरा,
तो क्या धर्म भी रहेगा धरा?
अरण्यों को निगल रही दावानल की क्षुधा,
घृणा धधक रही, परानुभूति-दीप है बुझा।
मूढ़ मानव न सोचता क्यों मिल रहा है दंड,
महामारी कर रही है ताण्डव प्रचण्ड।
जीवन-दायन तत्वों का न रह गया महत्व,
एक काल्पनिक रूप ही बन गया है सत्य।
यदि न रही ये धरा,
यज्ञ, अजान भी रह जायेगा धरा।
क्या संरक्षण योग्य है कर यह चिंतन मनन,
किसका करना चाहिये हम सबको हनन।
पूजते जिसको, है धरा उसी दाता का दान,
कर्म तेरे कर रहे आज उसी का अपमान।
पाप अविरत धो लिये, अब अवनि भी धो,
एक ही धरणी है, इसको तो न खो।
यदि भस्म हो गई ये धरा,
उपलब्धियाँ और ज्ञान भी रह जायेगा धरा॥
प्रपात - झरना
विषाद - दुःख
क्रुद्ध - नाराज़, गुस्सा
अंततः - आखिर में
अरण्य - जंगल
दावानल - जंगल की आग
क्षुधा - भूख
परानुभूति - दूसरे के प्रति सहानुभूति
मूढ़ - मूर्ख
हनन - वध, संहार
अविरत - निरंतर, लगातार
अवनि - पृथ्वी
धरणी - पृथ्वी
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- अतुल श्रीवास्तव
[फ़ोटो: अनुराधापुर, श्री लंका]
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