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मेरी प्रिय हिन्दी फिल्में

  • अतुल श्रीवास्तव
  • May 19, 2020
  • 3 min read

Updated: Aug 12, 2022


आज तक किसी को ये नहीं पता चला है कि मैं कई गत वर्षों से “चुपके चुपके” अनगिनत “गोलमाल” काम किये चला जा रहा हूँ | उदाहरण के लिये भारतीय रेल में हमेशा “हाफ़ टिकट” लेकर ही यात्रा करता हूँ और “पड़ोसन” के घर की “दीवार” से लटकती हुई “अंगूर” की बेलें चुप चाप रात को काट लिया करता हूँ |


पिछले सप्ताह की बात है मैं काम के लिये जा रहा था कि नज़र सड़क पर झोला फैलाये और सूखे मेवे बेचते हुये “काबुलीवाला” पर पड़ी | आदत से मजबूर मैं मौके का नज़ारा और फायदा लेते हुये कुछ मेवे अपनी जेब को भेंट चढ़ाने लगा | “अचानक” मुझे एक छोटे से हाथ का “स्पर्श” महसूस हुआ | पलट कर देखा तो एक “मासूम” सा बच्चा “खामोश” और ह्रदय भेदी निगाहों से मुझे घृणा भाव से देख रहा था | मैं इसे एक “छोटी सी बात” मान कर आगे बढ़ गया | “लेकिन” वो मेरा भ्रम मात्र था | सारा दिन उस बच्चे की निगाहें मेरा पीछा करती रहीं | बस उसी समय कसम खाई कि कभी किसी बच्चे के सामने ऐसा काम नहीं करूँगा |


शाम को वापस आते समय हमेशा की तरह ढाबे पर खाने के लिये रुका | “बावर्ची” ने भी हर रोज की तरह जीरे से छुंकी दाल, रोटी और सब्जी सामने परोस दी | पर न जाने क्यों बहुत “कोशिश” के बाद भी खाना खाने को दिल नहीं किया | बिना खाना खाये मैं बची खुची “शक्ति” बटोरते हुये घर की तरफ चल पड़ा |


घर पहुँच कर ध्यान बाँटने के लिये टी . वी. चला दिया | टी . वी. पर “चितचोर” आ रही थी पर उसमें भी मन नहीं लगा | उस बच्चे का चेहरा फिर से एक बार सामने घूम गया | पर इस बार उसकी आँखों में मासूमियत नहीं क्रोध के “शोले” दिखाई दिये | न जाने किस “जुनून” में आ कर एक और कसम खा ली कि इस तरह की गोलमाल हरकतों से हमेशा के लिये नाता तोड़ लूँगा |


अगले दिन जब सो कर उठा तो सोचा कि अपने परम मित्र और गोलमाल धन्धों के भागीदार अजय को भी अपने इस नेक विचार से अवगत करा दिया जाये | बाहर “मौसम” ने रौद्र रूप धारण कर रखा था, पर मैं अपने ईमानदारी वाले जीवन के भविष्य को “लक्ष्य” में रख कर और हाथ में छतरी लेकर एक “विजेता” की तरह निकल पड़ा | मैं एक लम्बे अंतराल के बाद अजय से मिलने जा रहा था अतः रास्ते में रुक कर उसके लिये एक छोटा सा “उपहार” खरीद लिया |


अजय के द्वार पर पहुँच कर घंटी बजाई – अजय ने द्वार-पट खोले और एक आत्मीयता भरी मुस्कान के साथ बोला – “चश्मे बद्दूर” बड़े दिनों के बाद दर्शन दिये | अंदर गये, नेसकैफे की कॉफी घोली, कुरमुरी भुजिया तश्तरी में निकाली और कॉफी का घूँट लेते लेते मैंने अजय को कल की घटी घटना की “कथा” ज्यों की त्यों सुना दी | अजय ने मेरी पीठ थपथपाते हुये कहा कि मैंने सही निर्णय लिया है | थोड़ी देर बैठ कर गप्पें मारी और फिर मैंने एक प्रसन्नचित मन से उससे विदा ली |


वापसी में गली के कोने में मदारी का खेल देखने के लिये रुक गया – पापी मन से रहा नहीं गया और समने खड़े भले मानस की पतलून की जेब से झाँकते हुये बटुये का जेब-स्थानांतरण कर दिया | और, “तीसरी कसम” खाई कि कभी स्वयम को बदलने का झूठा प्रयत्न नहीं करूँगा |


अरे अरे आप लोग क्यों लाल पीले हो रहें हैं मुझ पर | अब जो हुआ उसे “जाने भी दो यारों” क्यों कि मैंने जो कुछ भी सुनाया वो सब मात्र “अर्ध सत्य” था |


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- अतुल श्रीवास्तव

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-अतुल श्रीवास्तव

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