चौबे की चिरौरी
- अतुल श्रीवास्तव
- May 17, 2023
- 11 min read
Updated: Mar 29, 2024

मंझला कद, गौर वर्ण और घुँघराले बाल वाले अविराम चौबे एक जिंदादिल और हँसमुख व्यक्तित्व वाले प्राणी हैं| अविराम के सभी यार दोस्त इन्हें चौबे ही कह कर बुलाते हैं|
चौबे ने अभी हाल में ही साठ साल की दहलीज पार करी है| ऐसा कहा-सुना जाता है कि साठ साल की उमर पार करते ही आदमी सठिया जाता है और साथ में थोड़ा थोड़ा चिड़चिड़ा भी हो जाता है| अब ये उमर का तकाजा है या यार-दोस्तों का, पर चौबे जी पिछले कई हफ्तों से भिन्नाए हुए हैं|
बात दरअसल यह है कि चौबे को आई. आई. टी. रुड़की से इंजीनियरिंग पूरा किये हुए चालीस साल हो गये हैं| उस समय तो रुड़की विश्वविद्यालय हुआ करता था, पर रुतबा बढ़ाने के लिये कभी कभी नामों के साथ खिलवाड़ करना ही पड़ता है| खैर, चालीस साल पूरे होने की खुशी में रुड़की में 1983 के बैच के यार-दोस्तों की एक भव्य रीयूनियन का आयोजन किया गया| आने वाले लोगों की सूची में जब चौबे का नाम न दिखा तो उनके यार-दोस्तों ने फोन कर कर के चौबे को परेशान करना शुरू कर दिया कि, "अमाँ यार, आ जाओ| इसी बहाने इतने सालों के बाद मिलना हो जायेगा| तुम तो सिल्वर और कोरल रीयूनियन में भी न आये थे|"
पर न जाने ऐसी क्या वजह थी कि चौबे साहब की मुंडी बस पूरब-पश्चिम ही हिलती रही| यार दोस्त भी कम न थे, लगे रहे चौबे की मुंडी उत्तर-दक्खिन हिलाने के लिये| शायद बढ़ती उमर के साथ साथ दोस्तों की तकरार भी एक वजह थी कि चौबे जी पिछले कई हफ्तों से भिन्नाए हुए थे| पहले तो यार-दोस्त प्यार से समझाते रहे, फिर खुल्लम-खुल्ला गलियाने लगे| जब फिर भी न दाल गली तो सब चौबी की चिरौरी पर उतर आये| पर चौबे जी न तो टस हुए और न ही मस| इधर चौबे की चिरौरी जारी रही, और दूसरी तरफ चौबे का भिन्नाना मई-जून की गर्मी की तरह बढ़ता गया| आखिर वो दिन आ गया जब चौबे के सभी यार-दोस्तों ने हथियार डालते हुए चौबे को मनाने का इरादा एक बहुत ही फटे हुए कच्छे की तरह फेंक दिया|
पिछले कई दिनों से जब किसी भी दोस्त ने चौबे को तंग नहीं किया, तो चौबे फटाफट एक अदद चैन की बंसी खरीद लाया| इतवार का दिन था, सुबह के सात बजे थे और सूरज भी खीसें निपोरते हुए अच्छा-खासा ऊपर आ चुका था| चौबे साहब नहा-धो कर और अर्चना पूजा कर के बालकनी में रखी हुई कुर्सी पर पसर गये - चैन की बंसी बजाने के लिये| अपने सेल फोन को सामने रखी मेज पर प्यार से विराजमान किया और मेज पर पड़े हुए दैनिक जागरण को लपक कर उठाया| पहले पेज पर छपी खबर को पढ़ते पढ़ते चौबे ने चाय की चुसकियों का मजा लेना शुरू कर दिया| चुसकियों का मजा अभी घुलना शुरू भी न हुआ था कि मेज पर सुस्त पड़ा फोन जीं जीं कर के डिस्को करने लगा|
"ये लोग भी न चैन से बैठने नहीं देंगे| फिर कोई ढपली बजाने आ गया - चौबे यार, आ जाओ..", चौबे जी भुनभुनाये|
"ये तो कोई जाना पहचाना नंबर नहीं लगता है.. कोई बाहर का नंबर लग रहा है.. स्कैमर होगा कोई..", बड़बड़ाते हुए भी न जाने क्या सोच कर चौबे ने फोन उठा ही लिया|
"हेलो"
दूसरी तरफ से किसी महिला की कानों में मिश्री घोलती हुई आवाज आई, "मुझे अविराम चौबे से बात करनी है|"
"हाँ जी, मैं अविराम चौबे बोल रहा हूँ| आप कौन बोल रही हैं?"
"ओह! हेलो अवि.."
"अवि?", चौबे मन ही मन सोचने लगा, "सारे दोस्त तो मुझे चौबे ही कहते हैं| अवि कहने वाला तो सिर्फ एक ही .."
चौबे अभी मन ही मन बुदबुदा ही रहा था कि महिला ने अपनी बात पूरी करी,"अवि, मैं ज्योति बोल रही हूँ|"
"ज्योति?"
"हाँ, ज्योति.. आठ बजने में पाँच मिनट वाली ज्योति|"
चौबे ने बड़े रूखे अंदाज़ में जवाब दिया,"बताईये, क्या सेवा करूँ आपकी?"
"अवि, मुझे परसों ही पता चला कि नवंबर में अपने बैच की रूबी रीयूनियन है| तुम आ रहे हो न?"
चौबे ने उसे रूखे अंदाज़ में जवाब दिया, "नहीं, और मेरे आने या न आने से क्या?"
चौबे के रूखेपन ने ज्योति को थोड़ा सा गरम किया और उसी गर्मी में उसने चौबे को गरमा-गरम झाड़ लगा दी, "देखो अवि, अब तुम मुझसे नाटक बाजी मत करो| मुझे कुछ और नहीं सुनना है| मैं कह रही हूँ कि तुम्हें रूबी रीयूनियन में आना है, तो बस आना है| मैं तुमको रोज फोन कर के तब तक परेशान करती रहूँगी जब तक तुम रजिस्टर नहीं कर दोगे| मुझे तुमसे हर हालत में रुड़की में ही मिलना है और तुमको आना ही है| कोई बहाने बाजी नहीं| समझ गये?"
महिला की गरमा-गरम झाड़ और वह भी किसी खास महिला की, बस चौबे जी झट से मोम की तरह थोड़ा सा पिघल गये, "ये बताओ तुम हो कहाँ और मेरा नंबर कैसे मिला?"
"मैं कहाँ हूँ ये मिलने पर ही बताऊँगी| मैंने पिछले हफ्ते ही फ़ेसबुक पर अपना अकाउन्ट खोला है| तुम्हारा नंबर तुम्हारी प्रोफाईल पर था| तुम्हें पता है कि तुम्हारी प्रोफाईल पब्लिक है| खैर, अभी रखती हूँ| अगर तुमने आज रजिस्ट्रेशन नहीं किया तो एक खूंखार भूत की तरह परेशान करती रहूँगी|"
ये छोटी सी बात चीत चौबे को अपने रुड़की के दिनों के दूसरे साल में घसीट ले गई|
ये तो सर्व विदित सत्य है कि घिस्सू प्रजाति के प्राणियों को छोड़ कर रुड़की में पढ़ने वाला हर मस्तमौला सुबह आठ बजे की क्लास से उतना ही दूर भागता है जितना कि अधिकांश बच्चे करेले की सब्जी से| चौबे जी भी उनमें से थे जिन्हें सुबह उठ कर नहाना और आठ बजे की क्लास जाना मानव जाति के लिये अभिशाप ही लगता था| चौबे ने तो पहले साल में ही कसम खा ली थी कि सुबह आठ बजे की क्लास सिर्फ सोम और बुद्धवार को ही जाया जायेगा|
दुर्भाग्यवश सोमवार का दिन था और चौबे को मन मार कर सुबह आठ बजे की क्लास के लिये बिस्तर से कुछ घंटों के लिये नाता तोड़ना पड़ा| बुदबुदाते हुए बिस्तर छोड़ा, भुनभुनाते हुए मंजन किया, बड़बड़ाते हुए एक मग्गा पानी से स्नान किया, गोविंद भवन की मेस को गाली देते देते सुबह का नाश्ता किया और मरियल कदमों से चल पड़े केमिकल डिपार्टमेंट की ओर सुबह आठ बजे की क्लास के लिये| लुड़कते-पुड़कते ई एण्ड सी के चौराहे पर पहुँचे| सड़क पार ही करने वाले थे कि नजर रवींद्र भवन की दिशा से चौराहे की ओर आती हुई साईकिल पर सवार सुंदरी पर पड़ी| चौबे की बुझी बुझी आँखें चील की आँखों की तरह पूरी तरह से खुल गईं| बस एक टक साईकिल पर सवार सुंदरी को निहारते रहे| सुंदरी अब तक इलेक्ट्रिकल के आगे निकल गई थी, पर चौबे जी किसी सम्मोहन के वश जड़वत हो गये| तभी चौबे जी के खुराफाती दोस्त अतुल की आवाज हवा में गूँजी, "अबे चौबे, साले आठ बजने में पाँच मिनट बाकी है| अगर समय पर नहीं पहुँचे न तो यमदूत जान ले लेगा| साले, खड़ा खड़ा क्या सोच रहा है? चल भैय्या, चल|"
अतुल की चीत्कार और यमदूत का नाम सुन कर चौबे वशीकरण मंत्र से मुक्त हो कर केमिकल डिपार्टमेंट की तरफ दौड़ पड़ा| पर आज की आठ बजे वाली क्लास का सत्यानाश हो गया - पूरा समय चौबे को बोर्ड पर साईकिल सुंदरी ही दिखती रही और बोर्ड पर लिखा हर एक नंबर आठ बजने में पाँच मिनट ही दिखाता रहा|
अगला दिन था मंगलवार जो कि चौबे के लिये था सुबह आठ बजे की क्लास में न जाने का दिन| पर पहले साल में खाई हुई कसम को तोड़ते हुए साईकिल सुंदरी के सम्मोहन में वशीभूत चौबे सज धज कर निकल पड़ा सुबह आठ बजे की क्लास के लिये| ठीक आठ बजने में पाँच मिनट पर चौबे जी ई एंड सी के चौराहे पर बुत की तरह खड़े हो गये| और ठीक आठ बजने में पाँच मिनट पर साईकिल परी फुर्र से चौबे के सामने से लहराती हुई निकल गई| दर्शनोपरांत चौबे ने अपने चेहरे पर एक चौड़ी सी मुस्कान चिपकाई और चल पड़े यमदूत की क्लास के लिये|
सुबह आठ बजने में पाँच मिनट पर साईकिल सुंदरी के दर्शन करना अब चौबे की रोज की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया| इधर चौबे रोज़ रोज़ सुबह आठ बजे की क्लास में जाने लगा, और अतुल इस उधेड़बुन में परेशान कि अच्छे भले चौबे को क्या हो गया| पर ऐसी बातें छुपती कहाँ हैं? अतुल मियाँ तुरंत ताड़ गये कि माजरा क्या है|
"अबे चौबे, उस साईकिल सुंदरी पर दिल आ गया है क्या? कहो तो उसकी एक फ़ोटो खींच दूँ तुम्हारे लिये|", अतुल ने खुराफाती सुझाव दे डाला|
चौबे ने पहले सवाल का जवाब तो नहीं दिया, पर फुसफुसाते हुए पूछा, "तू कर सकता है? मतलब फ़ोटो.."
अगले दिन चौबे के साथ साथ अतुल भी पहुँच गया ई एंड सी के चौराहे पर| साथ में था अगफ़ा क्लिक 3 कैमरा - वो कैमरा जो तीन फीट की दूरी पर खड़े बुत की भी ढंग की फ़ोटो न खींच सके| और उसी कैमरे से जनाब अतुल फ़ोटो खींचने वाले थे पचास या साठ फुट की दूरी पर साईकिल पर जाती एक बाला की|
ठीक आठ बजने में पाँच मिनट पर चौबे-मन-मोहिनी साईकिल पर सवार आती हुई दिखी| कैमरा मैन अतुल आ गये एक्शन में - एक क्लिक, दो क्लिक.. अभी तीसरा क्लिक दबने ही वाला था कि साईकिल सुंदरी ने अपना रुख चौबे और अतुल की ओर किया| अपने ओर आती हुई आफत को देख कर अतुल तो क्राईम सीन से उड़न-छू हो लिया, पर वशी-मंत्र के जाल में फंसे चौबे महाराज बिना हिले डुले वहीं के वहीं खड़े रहे|
"मैं पिछले कई दिनों से देख रही हूँ कि तुम सुबह सुबह यहाँ आ कर खड़े हो जाते हो और मुझे एक टक घूरते रहते हो| आज तो हद ही कर दी| अपने साथ एक और को ले आये छुप कर मेरी फ़ोटो लेने के लिये| बदतमीजी की भी हद होती है| मुझे तो तुम्हारी शिकायत करनी पड़ेगी|", साईकिल सुंदरी बिना रुके चौबे को फटकारे जा रही और चौबे बिना कुछ कहे सर झुकाये खड़ा रहा|
तकरीबन पाँच दस मिनट फटकारने के बाद जब साईकिल सुंदरी को यह अहसास हुआ कि सामने खड़ा बंदा तो कुछ बोल ही नहीं रहा है तो उसने फटकारने की लय-ताल कुछ बदली, "तुम मुझे जानते भी हो.."
"ज्योति| मेरे ही बैच की हो| आर्किटेक्चर| लोकल हो, इसी लिये रोज साईकिल से डिपार्टमेंट जाती हो|", चौबे ने बिना सर ऊपर उठाये कह डाला|
"अच्छा! पूरी जासूसी कर रखी है| कोई ढंग का काम नहीं है कि सुबह सुबह आ कर यहाँ आ कर खड़े हो जाते हो?"
"सुबह सुबह नहीं| आठ बजने में पाँच मिनट पर|"
"सुनो, कल से तुम मुझे यहाँ दिखने नहीं चाहिये|"
ये कह कर ज्योति पलट कर जाने ही लगी थी कि चौबे ने कहा, "ऐसा है हम दोनों को एक दूसरे से माफी माँगनी चाहिये.."
"हम दोनों को क्यों?"
"मैंने, खास कर फ़ोटो वाला, जो किया गलत था और तुमने भी कुछ ज्यादा ही कह डाला| ऐसा करते हैं कैंटीन में चल कर एक एक कप चाय के साथ सौरी बोल कर यह सब रफा-दफा करते हैं| शाम को पाँच बजे मिलें?", चौबे ने सुझाव दिया|
"चोरी और ऊपर से सीना-जोरी? मुझे कोई शौक नहीं है चाय पीने का|"
"ठीक है| तो मैं तुमको रोज़ आठ बजने में पाँच मिनट पर यहीं खड़ा दिखूँगा|"
ज्योति ने कुछ देर सोचा और फिर थोड़ा गुस्से में कहा,"ठीक है, आज पाँच बजे कैंटीन में मिल कर इस मामले को खतम करते हैं|"
ठीक शाम को पाँच बजे चौबे यूनिवर्सिटी कैंटीन पहुँच गया| जब सवा पाँच बजे तक भी ज्योति के दर्शन न हुए तो बुझे दिल से उठ कर वापस जाने लगा| अभी दो कदम ही गया होगा कि उसे ज्योति आती हुई दिखाई दी|
न जाने उस दिन चौबे ने अपनी मधुर मुस्कान के साथ क्या क्या मीठी मीठी बातें करीं कि मिलने और बातों का सिलसिला अब तो रोज़ ही होने लगा| शाम को जब यूनिवर्सिटी कैंटीन बंद हो जाती तो हर इस श्रेणी के प्राणियों की तरह ये दोनों भी सेंट्रल लाईब्रेरी की दूसरी मंजिल का सदुपयोग करने लगे|
समय पंख लगा कर इतनी तेजी से उड़ा कि देखते देखते रुड़की में आखिरी दिन भी आ ही गया| चौबे फाईनल ईयर के प्रोजेक्ट से छुटकारा पा कर सीधे दौड़ा सरोजिनी भवन की ओर ज्योति से मिलने| वहाँ जा कर पता चला कि ज्योति एक दिन पहले हास्टल छोड़ कर चली गई है|
चौबे पूरे तीन दिन तक लगा रहा ज्योति का पता लगाने में, पर कोई सफलता और ज्योति का सुराग न मिला| आखिर, एक बहुत ही कड़वे मन के साथ चौबे ने रुड़की को अलविदा कह दिया| चौबे का मन कुछ ऐसा खट्टा हुआ कि उस दिन के बाद से उसने रुड़की की ओर मुँह ही नहीं किया| दोस्तों की लाख चिरौरी के बाद भी चौबे सिल्वर और कोरल रीयूनियन में रुड़की नहीं गया|
आज चालीस साल के बाद ज्योति की आवाज ने पुरानी कड़वाहट को फिर से झिंझोड़ दिया| पहले तो चौबे का मन आया कि दोस्तों की चिरौरी की तरह ज्योति की फटकार को भी अनसुना कर दे, पर कुछ देर बाद रेजिस्ट्रेशन कर ही दिया यह सोच कर कि ज्योति से मिल कर अपने अंदर चालीस साल से उबल रहे ज्वालामुखी को बह जाने देगा|
वो दिन भी आ गया जब 1983 के सभी यार दोस्त रुड़की में जमा हो गये| कुछ के बाल गायब हो गये थे, कुछ के पेट फल फूल रहे थे, कुछ के बाल सफेद थे तो कुछ के अभी भी काले थे| समय ने काफी कुछ बदल दिया था, पर जो बिल्कुल भी नहीं बदला था वो था चालीस साल पुराना याराना| लोग गले मिल रहे थे, एक दूसरे को उनके उप नामों से बुला रहे थे| और, खास दोस्तों को उप नाम के आगे पीछे विशेष प्रकार के विशेषण लगा कर बुला रहे थे| चौबे भी यार दोस्तों की इसी भीड़ में था, पर उसकी निगाहें किसी और को ढूँढ रही थीं|
"हेलो अवि!"
चौबे ने पलट कर देखा| सामने ज्योति खड़ी थी| दोनों एक दूसरे को बस एक टक देखते ही रहे, एक भी शब्द मुँह से न निकला| ज्योति ने ही एक अजीब से सन्नाटे को तोड़ते हुए पूछा, "यू सी चलें?"
चौबे ने सहमति में सर हिलाया और दोनों चल पड़े अपने पुराने अड्डे यूनिवर्सिटी कैंटीन की ओर|
चाय के साथ क्रीम रोल मंगाये गये| अब तक चाय की तीन चार घूँटें अंदर जा चुकी थीं पर आवाज अभी तक बाहर नहीं आई थी| ज्योति ने एक बार फिर से सन्नाटा तोड़ा, "कैसे हो?"
"तुम ऐसे कैसे गायब हो गई..", चौबे अचानक फूट पड़ा|
चौबे आगे कुछ और कहता उससे पहले ही ज्योति ने कहना शुरू कर दिया, "मुझे उस दिन का आज तक बहुत दुख है| मैंने पापा को बताया था तुम्हारे बारे में, पर उनको यह सब एकदम पसंद न आया| हास्टल आ कर मुझे घर ले गये| उस जमाने में इंटरनेट और ई-मेल तो थे नहीं इसलिए तुमसे किसी भी तरह से कान्टेक्ट न हो पाया| तुम्हारी ओर से भी जब कोई खबर न आई तो मैंने सोचा शायद तुम भी आगे निकल गये होगे| कुछ साल बाद मेरी प्रखर से शादी हो गई, मर्चेन्ट नेवी में है, बहुत अच्छा है| उसके साथ अधिकतर बाहर ही रही और आखिर में हम लोग सिंगापुर में सेटेल हो गये| मैं हमेशा इसी बात से परेशान रही कि आखिरी दिन तुमसे मिल तक न पाई| जब मुझे इस रीयूनियन के बारे में पता चला तो सोचा तुमसे रुड़की में ही मिल कर और यू सी में ही बैठ कर सॉरी बोलूँगी| तो अवि, सॉरी!"
इसी बीच चौबे की चाय की प्याली में दो चार बूंदें टपक गईं| शायद आसुओं की थीं क्यों कि चाय की अगली चुस्की लेने के बाद चौबे ने कहा - इस मिठास में एक अजब सा खारापन है, पर मुझे अच्छा लग रहा है|
"अवि, अपने परिवार के बारे में बताओ|"
"पत्नी का नाम दीपिका है| उसने भी इंजीनियरिंग की है| एक बेटी है|"
"बेटी का नाम क्या है?"
"ज्योति"
दोनों काफी देर बातें करते रहे| चौबे का ज्वालामुखी बह गया और ज्योति को अपना समापन मिल गया|
तीन दिन तक दोस्तों की महफिलें जमती रहीं, धमा चौकड़ी मची, गाने बजाने हुए और पुरानी यादों की मूसलाधार बारिशें हुईं| फिर दिन आ गया वापस अपने अपने घर जाने का| चौबे भी यार दोस्तों से गले मिला और हर एक शख्स से पूछा, "अबे, अगली रीयूनियन में तो आ रहे हो न? तब फिर मिलेंगे|"
चिरौरी करने वाले यार दोस्त खुश कि चिरौरी ने असर दिखा ही दिया| उन्हें ये पता ही नहीं चला कि यह चिरौरी नहीं बल्कि बची हुई एक छोटी सी चिंगारी का असर था जो अचानक ज्योति बन कर चौबे पर रोशनी कर गई|
इस बार आखिरी दिन चौबे का ज्योति से मिलना भी हुआ|
"वापस कब जा रही हो?"
"परसों दिल्ली से फ्लाईट है|"
"कितने बजे की है? एयरपोर्ट मिलने आऊँगा|"
"आठ बजने में पाँच मिनट पर|"
****
- अतुल श्रीवास्तव
[फ़ोटो: अंटार्कटिका]
Loved it! Funny but भावनात्मक at the same time!!
Thoroughly enjoyed reading this. Thanks
चौबे से ऐसी उम्मीद ना थी 😀