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पुनरागमन

  • अतुल श्रीवास्तव
  • May 19, 2020
  • 1 min read

Updated: Aug 12, 2022


शीतल पड़ते सम्पर्कों से विचलित था, कुछ क्रोधित भी था,

सिमटते दिवसों की शिथिलता से अंतर्मन क्षोभित भी था।

प्रणय गीतों को रचने वाली विलुप्त हो रही वो भाषा थी,

ह्रदय तल में पनप रही परिवर्तन की आशा थी, उन्मुक्त होने की अभिलाषा थी।


परिवर्तन की आशा ने चहचहाती संध्या का आव्हान किया,

तुम धीरे से निकल गयी, न शोक हुआ, न विरह गीत का गान किया।

हर्ष हुआ, उल्हास हुआ, अपनों के संग आहाते में बैठ हास हुआ परिहास हुआ,

परिवर्तित इन कालों में भ्रमण, विचरण और रवि-किरणों से स्नान हुआ।


हुआ समय व्यतीत, असहनीय हो चुभने लगा परिवर्तन का बढ़ता ताप,

सम्भवतः तुम्हारा गमन वितरित कर गया क्षणिक परिवर्तन पर एक मूक श्राप।

अनुभूति हुई तुम्हारे स्पर्श की आज उषा काल की बेला में ,

तुमसे मिलने की एक आस जगी, मैं लतपथ हूँ इस मेला में।


शीत लहरी की लघु पेंगो पर तुम आती हो, फिर जाती हो,

आगमन का मन है इसका निश्चय क्यों न कर पाती हो?

विडम्बना है और ये विदित है तुमको कि जब फिर से तुम आओगी,

मुझको एक बार पुनः तुम अपने से दूर भागता ही पाओगी।


छूने का प्रयत्न करोगी, तो मैं छुप जाऊँगा परतों में कपड़ों की,

दूर दूर भागूँगा और बना लूँगा कुटिया कम्बल के टुकड़ों की।

तिस पर भी आधीरता से है तुम्हारे पुनरागमन की अभिलाषा,

क्यों कि ह्रदय तल में फिर से पनप रही है परिवर्तन की आशा।


ओ शीत ऋतु तुम ठुमक ठुमक चपल गति से आ जाओ,

कुछ माह सही, अब आकर के कुछ कोहरे के बादल बिखरा जाओ।

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- अतुल श्रीवास्तव

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-अतुल श्रीवास्तव

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