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टिस्क!

  • अतुल श्रीवास्तव
  • May 19, 2020
  • 6 min read

Updated: Aug 12, 2022


मेरे एक पुराने घनिष्ठ मित्र हैं आत्म त्रिवेदी। सातवीं कक्षा से लेकर बारहवीं तक मैं और मेरे समस्त साथी गण इन्हें पंडत (पंडित का बिगड़ा रूप) कह कर ही सम्बोधित करते आये हैं। जब हम सबने नवीं कक्षा में पदार्पण किया तो चिकित्सक बनने की चाह वालों ने जीव विज्ञान और अभियंता बनने का स्वप्न देखने वालों ने गणित का चयन किया। पंडत हिन्दी का पुजारी और भक्त था। जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह “दिनकर” जैसे लोग उसके प्रेरणा पात्र थे। पंडत का स्वप्न था एक कवि, लेखक और उद्घोषक बनने का। अतः बिना किसी झिझक के उसने जीव विज्ञान और गणित का परित्याग कर के संस्कृत के चरणों में मस्तक रख दिया।


समय बीता, कुछ यार दोस्त डॉक्टर बन गये और कुछ रो पीट कर अभियंता। और, पंडत इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी और संस्कृत का विद्वान बन कर प्रकट हुआ। पंडत के लेख और कवितायें धर्मयुग और सारिका जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगे। कुछ ही वर्षों में भारी भरकम वेतन के साथ एक मासिक हिन्दी पत्रिका का संपादक भी बन बैठा। पर ये सब तो लगभग बीस-पच्चीस साल पुरानी बात है। समय कुछ अधिक तेजी से ही बदला। समय के हथौड़े से धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं की दोनों टाँगें टूट गयीं। कुछ समय तक तो घिसट घिसट कर चलती रहीं, पर अंततः लाभ और हानि के आँकणों के सामने आकर दम तोड़ दिया। अब भला पंडत की छोटी सी पत्रिका की क्या औकात? उसे भी कुछ वर्षों के उपराँत आत्म-दाह करना ही पड़ गया।

तिरपन वर्ष की आयु में पंडत एक बार पुनः ढंग की नौकरी ढूँढने में लग गया। घर में बीबी उलाहना देती फिरती, अरे अगर अंग्रेजी में कुछ किया होता तो कम से कम “एक महिने में फ़र्राटे दार अंग्रेजी बोलना सीखें” जैसे कोचिंग कॉलेज में ठीक ठाक नौकरी मिल जाती। पंडत का पंद्रह साल का किशोर लड़का भी दुखी रहता कि उसके “डैड” बिलकुल भी “कूल” नहीं है। पंडत के पास कुछ एक हिन्दी के समाचार पत्रों से प्रस्ताव आये, पर इन समाचार पत्रों के हिन्दी के निम्न और घटिया स्तर को देख कर उसका मन खिन्न हो उठा। साथ में उसे ये भी लगा कि इन समाचार पत्रों में नौकरी करने से वो कभी भी अपने पुत्र के लिये एक “कूल डैड” नहीं बन सकेगा। बस इसी उधेड़बुन के साथ पंडत मेरे साथ बैठा चाय की चुस्कियाँ ले रहा था, और साथ में बैठे थे मेरे एक और मित्र राजीव सिंह।


राजीव ने पंडत की करुण गाथा सुनी और गला खंखारते हुये पंडत को सलाह दी, “त्रिवेदी भाई आप कहानियाँ लिखते हो, कवितायें रचते हो। अपने इन गुणों का सदुपयोग “बॉलीवुड” में क्यों नहीं करते हो? और, आपके बेटे को भी ये कहते हुये गर्व होगा कि उसका “डैडी” भी बॉलीवुड की एक हस्ती है। अगर आप जरा भी रुचि रखते हों तो बेझिझक मुझे बतायें मैं आपकी भेंट बॉलीवुड की कुछ हस्तियों से करवा दूँगा। ”


मैंने राजीव को एक तिरछी प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। राजीव ने मेरी ओर मुस्कुराते हुये कहा, “अरे भाई ऐसे क्यों देख रहे हो। मुम्बई में नौकरी के साथ साथ रंगमंच पर भी काम करता हूँ। उसी के जरिये किरन गौहर से भेंट हो गयी और उसकी तीन चार फिल्मों में छोटी मोटी भूमिकायें करने को मिल गयीं। किरन से मेरी ठीक ठाक जान पहचान है। ”


पंडत ने उत्सुकता से कहा, “हाँ एक महिला के लिये साहित्यिक कार्य करना अच्छा भी रहेगा क्यों कि पुरुषों की अपेक्षा महिलायें अधिक संवेदनाशील होती हैं। ”


राजीव ने हँस कर उत्तर दिया, “त्रिवेदी भाई, किरन गौहर कोई औरत वौरत नहीं बल्कि आदमी हैं। हाँ हाव भाव अवश्य महिलाओं जैसे हैं। लगता है आपने उनकी ब्लॉक-बस्टर फिल्में देखी नहीं हैं। ‘कभी सुट्टा कभी रम’, ‘कभी आलू बड़ी न खाना’ और ‘कब्ज़ हो न हो’ जैसी महान कृतियाँ उन्हीं के दिमाग की उपज हैं। ”


खैर, पंडत ने राजीव की सलाह स्वीकार कर ली और पहुँच गया मुम्बई अपनी लेखनी से सबको सम्मोहित करने। पंडत का सौभाग्य कि किरन ने “क” अक्षर से एक और “कूड़ा” बनाने का निर्णय लिया और एक नये गीतकार की खोज प्रारंभ हो गयी। राजीव भी मौके का लाभ उठाते हुये पंडत को लेकर किरन के समक्ष उपस्थित हो गया। किरन ने मुस्करा कर पंडत और राजीव से पूछा, “विल यू लाईक टु हैव कॉफी विद किरन गौहर। ”


सारी बेकार की औपचारिकताओं के बाद किरन ने पंडत से कहा, “आत्म डियर, हेयर इज़ ए सीन फ्रॉम माई न्यू मूवी। हेरोईन इज़ गेटिंग मैरिड। हर फ्रेंड्स ऐंड रिलेटिव्ज़ आर सिलेब्रेटिंग, डाँसिंग ऐंड सिंगिंग। कैन यू राईट ए नाईस साँग फॉर दिस सिचुएशन?”


पंडत हाथ में कलम और एक पन्ना लेकर कोने में जा बैठा। करीब आधा घंटा तक सर खुजाने के बाद पंडत के दिमाग के घोड़े थोड़े गतिशील हुये। कुछ देर के बाद वो किरन के समक्ष अपनी रचना लेकर उपस्तिथ हुआ -


सखी तुझे इस पावन बेला पर क्या दूँ मैं उपहार,

बस प्यार के इस दोने में कर कुछ स्मृतियाँ स्वीकार।

जब पिया जायें परदेस, और अकेली हो तुम साँझ सवेरे,

चुम्बन कर लेना दोने का, आ जाऊँगी झूले की पेंग लगा आँगन में तेरे।


“होल्ड इट होल्ड इट। ” किरन ने झुँझलाते हुये कहा, “ये कौन सी लैंग्वेज़ में लिख रहे हो? आई आस्क्ड यू टु राईट इन हिन्दी, नॉट इन संस्कृत। ये सब कौन से वर्ड हैं? हू विल अंडरस्टैंड दीज़ – दोना, स्वीकार, उपहार ऐंड समरितया व्हाट एवर दैट इज़। आई वान्ट समथिंग मॉडर्न, पेपी ऐंड स्टाईलिश। ”


पंडत को एक हजार वोल्ट का झटका लग गया। बेचारा आँसुओं को किसी तरह रोक कर राजीव के साथ भौंचक्का सा वापस घर आ गया। उसी शाम को राजीव के घर राजीव के एक सॉफ्टवियर इंजीनियर मित्र नितिन पधारे। पंडत से भी मिले। कॉफी पी, समोसे खाये और साथ में गीत लेखन से संबन्धित सुबह का किस्सा सुना। नितिन ने हँसते हुये कहा, “आत्म यार तुम भी कहाँ अकल के घोड़े दौड़ाने में लग गये। कंप्यूटर का जमाना है। अब अगर कंप्यूटर सारे वाद्य यंत्रों की जगह ले सकता है तो गीत की धुन क्यों नहीं बना सकता है? अरे मैं तो यह भी कहूँगा कि गीत की रचना क्यों नहीं कर सकता है? मानता हूँ कि ऐसे गीतों में कोई भावना या मादकता नहीं होगी, पर आजकल संगीत भी तो हर चीज की तरह एक प्रयोज्य (disposable) वस्तु होकर ही तो रह गया है। मैंने एक सॉफ्टवेयर लिखा है “टिस्क” (TISC – The Incredible Song Constructor)। आप इसमें अपने मनपसंद शब्दों की सूची डाल दीजिये, “गीत रचना” बटन पर क्लिक कीजिये – बस मेरा जादुई “टिस्क” शब्दों की सूची में से कुछ शब्दों का चुनाव कर के उन्हें एक अनियमित क्रम में रख कर गीत बना डालेगा। मैं अभी ऑफिस से ही आ रहा हूँ। मेरा लैपटॉप साथ में है, अगर तुम चाहो तो “टिस्क” का प्रयोग कर के देख लो। ”


पंडत ने मरे मन से कहा, चलो ये भी कर के देख लिया जाये। लैपटॉप चलाया गया। “टिस्क” में गीत श्रेणी चुनी गयी “मॉडर्न”। “मॉडर्न” श्रेणी के लिये नीचे लिखे शब्द पहले से ही शब्द-सूची में पड़े हुये थे:


माही

बल्ले बल्ले

हड़िप्पा

चूड़ियाँ

शरारा

बेबी

पार्टी

लव यू

कुड़ी

किस

आई वाना (वांट टू)

आहा आहा

यो कूल

रब्बा

ओ या

गल

नसीबा


और भी कई अंग्रेजी और पंजाबी के शब्द। पंडत ने धड़कते हृदय से “गीत रचना” वाला बटन क्लिक कर किया, और ये लो लैपटॉप की स्क्रीन पर एक “मॉडर्न” गीत तैय्यार हो कर आ गया:


ओ या आहा आहा

ओ या यो बेबी यो बेबी,

ओ या आई वाना टेल यू

आहा आहा वाना वाना टेल यू बेबी

यू कूल यू क्यूट,

आई लव यू ओ या ओ

माही... माही वे...

रब्बा तेरे नसीबा आया

एक कूल डूड

हाऊज़ दैट

हियर इज़ द पार्टी

ओ या मैं हाथों विच लगा दे मेंहदी

बालों विच लगा दे गजरा

पहन दे शरारा

यो बेबी यू डाँस

मेरी प्यारी कुड़ी बनी एक दुल्हन

आई वाना किस यू, वाना वाना किस यू बेबी

हाऊज़ दैट

ओ या।


ये पढ़ कर पंडत ने अपना माथा मेज पर दे मारा, बोला, “ये क्या कचरा है। इसको गीत कहते हो?”


नितिन ने तत्परता से कहा, “अरे पहले इसे किरन को सुना कर आओ फिर कुछ कहना। ”


अगले दिन सुबह सुबह ही पंडत और राजीव जा पहुँचे किरन के घर और पंडत ने एक ही साँस में “अपना” नया “साँग” सुना डाला। “साँग” खतम होने के बाद कमरे में कुछ देर शांति छाई रही, फिर अचानक किरन ने दौड़ कर पंडत को गले लगाते हुये कहा, “फेंटास्टिक, सुपर्ब, माईंड-ब्लोईंग। ” पंडत की बोहनी हो गयी और वो एक बार पुनः प्रसिद्धि के पथ पर चल पड़ा।


पिछले हफ्ते काम के सिलसिले में मुम्बई जाना हुआ। पंडत से मिलने उसके घर भी गया। घर और घर की साज सज्जा से पंडत की नयी संपन्नता झलक रही थी। मैंने पंडत से उसके पुनर्जन्म और नये अवतार के बारे में पूछा। एक लम्बी सी आह भरते हुए पंडत ने कहा, “लड़का मुझ पर गर्व करने लग गया है। बीबी भी खुश रहती है। लक्ष्मी देवी भी कृपालु हो गयी हैं। पर ये सब मुझे प्राप्त हुआ है आत्म त्रिवेदी की हत्या कर के। बस यही सोच कर हृदय से ग्लानि का बोझा हटाने का प्रयत्न करता हूँ कि आत्म त्रिवेदी को मैंने अकेले ही नहीं मारा है। उसके और उसके जैसे कई और लोगों की आसमयिक मृत्यु के लिये भारत के कई बड़े नगरों की बड़ी जनसंख्या उत्तरदायी है।


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- अतुल श्रीवास्त

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-अतुल श्रीवास्तव

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