कर्मों का चक्रव्यूह?
- अतुल श्रीवास्तव
- Aug 9, 2021
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Updated: Mar 29, 2024

क्यों वो तोड़ती थी पत्थर,
इलाहाबाद के पथ पर?
क्या भुगत रही थी दंड,
पिछले जन्मों के कर्मों का?
या थी एक कटु प्रतिबिम्ब,
नगर के करुणा-हीन ह्रदयों का?
प्रस्वेद प्रवाह अभिव्यक्त था करता,
"सूर्य" न था उस नारी का "कांत"।
न घटित हुआ कोई प्रसंग "निराला",
हर मानव था निर्मम, प्रस्तर सा शांत।
ये वंशावली भी एक अभिमन्यु है,
हाथों में एक अस्त्र लिये चक्रव्यूह में उलझी है।
कर्मों का फल है, इस तर्क तले,
क्या कोई समस्या सुलझी है?
पत्थर पर वार के कोलाहल से,
बधिर हो गई है जन चेतना।
कालों से बहते ज्ञान तले,
क्या विलुप्त हो गई है सम्वेदना?
परिवर्तन कदाचित सम्भव है,
हर उर हो जाये कोमल पत्थर प्रकार।
टूटे न सही पर हिल तो जायेगा,
जब होगा उस पर लौह प्रहार।
वो तोड़ती थी पत्थर,
वो तोड़ती है पत्थर,
क्या वो तोड़ती रहेगी पत्थर,
हर नगर में और हर पथ पर?
प्रस्वेद: पसीना
कांत: प्रेमी, अनुरागी
उर: ह्र्दय
लौह: लोहा (आशय हथौड़े से है)
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- अतुल श्रीवास्तव
[फ़ोटो: अलास्का]
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