ऐसा और कहाँ
- अतुल श्रीवास्तव
- May 19, 2020
- 6 min read
Updated: Aug 12, 2022

कई दिनों की व्यस्तता के पश्चात पिछले सप्ताहाँत थोड़ा खाली समय मिला। सोचा चलो कुछ घुमाई कर ली जाये। जंग खाती हुई अपनी दस-बारह साल पुरानी खटारा मारुति निकाली और चल पड़ा कनॉट प्लेस की ओर। किस्मत ने थोड़ा साथ दिया और आसानी से पार्किंग मिल गई। अपनी कार खड़ी ही कर रहा था कि बिना चाहते हुए भी बगल में खड़ी चमचमाती हुई टोयोटा कैमरी पर नजर पड़ ही गयी। सुना है मिला जुला कर तकरीबन बीस या पच्चीस लाख की पड़ती है। मन ही मन सोचा किसी नेता, अभिनेता या स्मगलर की होगी। बिना चोरी चमारी किये कोई इतना पैसा कमा ही नहीं सकता है कि ऐसी कार खरीद सके। चाभी उमेंठ कर अपनी कार का दरवाजा बंद कर के चलने ही वाला था कि बगल वाली कार के रिमोट दरवाजों की बंद होने वाली ध्वनि ने एक बार पुनः ध्यान आकर्षित कर लिया। देखा कार के बगल में अपनी ही उमर के एक महानुभाव सूट और टाई लगाये खड़े हुये थे।
नजरें थोड़ी और पैनी हुई तो हाथ में कीमती विदेशी घड़ी और आँखों पर असली रे-बैन का धूप का चश्मा भी दिख गया। रे-बैन से जब नजरें हटीं तो चेहरे पर भी ध्यान चला गया। चेहरा कुछ पहचाना सा लगा। अरे ये तो मनोज सिंह लगता है। पर मन ने ये स्वीकार करने से साफ मना कर दिया। मनोज सिंह आठवीं से लेकर बारहवीं तक मेरी ही कक्षा में हुआ करता था। पढ़ने लिखने में सबसे पीछे, पर आवारागर्दी, सिगरेट पीने, स्कूल कट करने और बाकी की सभी दुर्गणों में अग्रणी था। जिस प्रकार हिन्दी फिल्मों का नायक लफंगागिरी, आवारागर्दी, चोरी चमारी वगैरह वगैरह करने के उपराँत भी एक नेक इंसान और दिल का अच्छा होता है; उसी प्रकार मनोज भी दिल का बहुत साफ था। और, मात्र इसी कारण मेरी उससे बात चीत हो जाती थी। परंतु मैं था पढ़ाई में अग्रणी। अतः मेरे सभी हितैषियों ने सलाह दी कि मनोज जैसे प्राणी से मुझे कोसों दूर रहना चाहिये। उसके बाद से मेरी मनोज से भूले भटके साल में दो या तीन बार बात हो जाती थी, वो भी तब जब उसका मन गलती से विद्यालय-दर्शन के लिये आतुर हो जाता था।
बारहवीं के बाद मैं घिस-घिसा कर भारत के अग्रणी इंजीनियरिंग कालेज में पहुँच गया। कुछ साल के बाद पता चला कि मनोज ने फैज़ाबाद से बी। ए। कर के पढ़ाई छोड़ दी थी और घर में खाली बैठ कर अपने पिताजी का रक्तचाप बढ़ाने में लग गया था। इतनी घिसाई करने के बाद मैं एक पुरानी मारुति में और मनोज सिंह कैमरी में - ये कुनैन की गोली तो निगली ही नहीं जा पा रही थी। खैर दिल थोड़ा बड़ा कर के मैं उन महानुभाव की ओर बढ़ा और हिम्मत कर के एक प्रश्नवाचक दृष्टि से पूछा, “मनोज सिं... ?”
“अरे अतुल! क्या बात है। पूरे 25 साल बाद मिल रहे होंगे। हाँ भाई मैं वही पुराना मनोज हूँ। ”
“पुराने वाले मनोज तो नहीं हो सकते हो। ये गाड़ी, ये ठाठ। नेता बन गये, पुलिस में भर्ती हो गये या स्मगलिंग वगैरह करने लग गये?”
“ऐसा कुछ नहीं है। यार मैं आवारा और लफंगा जरूर था पर किसी को नुकसान पहुँचाने वाला गैर कानूनी काम न तो कभी किया और न ही करने का विचार है। ”
“तो ये नई नई कैमरी?”
“अरे यार ये तो भारतीय क्रिकेट टीम के वर्ड कप से बाहर हो जाने का परिणाम है। ”
“सट्टा बाजी की थी क्या?”
“तौबा तौबा। भाई मैं इज्जतदार बिजनेस मैन हूँ। अपनी फैक्टरी है। अभी मुझे एक जरूरी मीटिंग में जाना है। अपना पता बताओ मैं कल तुम्हारे घर आता हूँ। ”
मैंने अपना कार्ड मनोज के हाथों में थमाया और हम दोनों अपने अपने रास्ते निकल गये। अगले दिन सुबह सुबह ही मनोज घर आ धमका। पाँच दस मिनट बैठा और बोला, “चलो तुमको अपनी फैक्टरी ले चलता हूँ। ”
मैं तैय्यार हो कर उसके साथ निकल पड़ा। मन आतुर हो रहा था मनोज की सफलता का रहस्य जानने के लिये। आधे घंटे के बाद मैं उसकी नौएडा की फैक्टरी की सामने खड़ा था। फैक्टरी में जाने से पहले मैंने पूछा, “मनोज, फैक्टरी तो देख ही लेंगे पर पहले ये बताओ कि वर्ड कप और कैमरी का क्या संबंध है। ”
“अतुल भाई ये बताओ कि भारत में लोग सबसे अधिक समय क्या करने में बरबाद करते हैं?”
“इस तरफ तो कभी सोचा ही नहीं। ”
“मैं बताता हूँ। हड़ताल, धरना देना, मोर्चा निकालना, तोड़ फोड़ करना और इसी से मिलती जुलती कई तरह की हरकतें करना। अब ये बताओ कि इन हरकतों को सफलतापूर्वक करने के लिये किन किन चीजों की आवश्यकता पड़ती है?”
“लोगों की?”
“अरे भारत में फालतू के लोग हजारों लाखों में मिल जाते हैं। लोगों के अलावा जरूरत होती है मालों की, जूते चप्पलों की, पुतलों की, बैनर्स की। जिस दिन भारत वर्ड कप से बाहर हुया – मुझे पता था कि अगले ही दिन पूरे भारत में गली गली धरने दिये जायेंगे; जुलूस निकलेंगे; क्रिकेट की अर्थियाँ जलाई जायेंगी; सचिन, राहुल और धोनी वगैरह के पुतले जलाये जायेंगे और कुछ एक के घरों में ईंटे पत्थर भी फेंके जायेंगे। मतलब कि अगले ही दिन इन सब चीजों की भारी तादात में माँग होगी। बस मेरी फैक्टरी ने तुरंत थोक के भाव सबके पुतले, क्रिकेट की अर्थियाँ, फेंकने योग्य सस्तमूले जूते चप्पल बनाने शुरू कर दिये। अगले तीन हफ्तों में मैंने करीब तीस लाख रुपये का कचरा बेच डाला और बस कैमरी आ गई। ”
मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया, “जीनियस यार जीनियस। ऐसा धाँसू आईडिया मेरे दिमाग में क्यों नहीं आया। ”
“अब तो तुम्हें पता ही चल गया होगा कि मेरी फैक्टरी में क्या बनता है। फिर भी अंदर चलो। ”
फैक्टरी में प्रवेश करते ही सबसे पहले देखा कि पुतले बनाये जा रहे है। मैं कुछ कहता उससे पहले ही मनोज ने कहना प्रारंभ कर दिया, “सामान की माँग परिस्तिथियों और घटनाओं के हिसाब से बदलती रहती है। पर फेंकने योग्य सस्तमूले जूते चप्पल, मालाओं और ईंटे पत्थर हमेशा ही माँग में रहते हैं। ”
“पर कोई ईंटे पत्थर क्यों खरीदेगा। ये तो हर गली नुक्कड़ में भरे पड़े रहते हैं। ”
“इन केस अगर आपका धरना या प्रदर्शन किसी साफ सुथरी जगह हो रहा हो तो अचानक थोक में ईंटे पत्थर कहाँ से लाओगे?”
“खैर ये पुतला किसका बन रहा है?”
“ये वाला शिल्पा शेट्टी का है और वो रिचर्ड गियर का है। भला हो दोनों का कि खुले आम किस कर लिया, बस मेरी योरोप ट्रिप का पैसा निकल आया। महान देश है अपना। आप पैंट और कच्छा उतार कर खुले आम हग और मूत सकते हैं, पर किस नहीं कर सकते हैं। मैं तो मनाता हूँ कि ऐसे लोगों की जनसंख्या दिन दूनी और रात चौगनी बढ़े। भाई अपने धंधे के लिये अच्छा है वरना मेरे जैसा निकम्मा और निखट्टू सुलभ शौचालय साफ करता मिलेगा। ”
थोड़ा और आगे बढ़ा तो देखा एक ओर छोटे छोटे पतली प्लास्टिक़ के बैगों का ढेर लगा था और पास में कड़ाहों में लाल रंग का द्रव्य। “अब ये क्या बन रहा है?”
“टमाटर। विपक्षी दल के नेता के भाषण में सड़े टमाटरों के प्रयोग से तो तुम परिचित हो ही। पर इस युग में इतने महंगे टमाटर कौन फेंकेगा? पहले तो लोग सड़े गले टमाटर फेंक लिया करते थे, पर जबसे ये एम.एन.सी. कंपनियाँ आई हैं सड़े गले टमाटर टोमैटो केचप और सॉस में प्रयुक्त हो जाते हैं”
फैक्टरी देखने के बाद मेरा घर जाने का समय आ गया। वापसी में मैंने मनोज से पूछा, “भारत अब विकास के पथ पर है। तुम्हारा ये धंधा कब तक चलेगा?”
“जब तक सूरज चाँद रहेगा। अब देखो न परसों ही मंदिरा बेदी ने एक साड़ी पहन ली जिस पर भारत का झंडा बना था और वो झंडा मंदिरा के घुटनों के नीचे था, बस मच गयी हाये तौबा। अब अगले एक दो दिन इस घटना के हवन के लियी सामग्री बनानी पड़ेगी। जब तक अपना देश ऐसे बेवकूफों से भरा रहेगा, मेरा धंधा तो फलता फूलता रहेगा। अभी तो मैं सिर्फ बड़े बड़े शहरों में माल सप्लाई करता हूँ। अगर मेरी पहुँच गाँव गाँव हो गयी तो करोड़ों की आमदनी हो जायेगी। चाहो तो मेरे बिजनेस में भागीदार बन जाओ। मुझसे ज्यादा पढ़े लिखे हो। बिजनेस बढ़ाने में मेरी मदद करो। इंटरनेट शिंटरनेट पर भी डालो। ये लो तुम्हारा घर आ गया। और हाँ मेरे प्रस्ताव के बारे में ध्यान से सोचना। ”
पूरा एक सप्ताह हो गया है मनोज से मिले हुये। इन पिछले चार पाँच दिनों में मेरी भी दबी हुई इच्छाओं ने पेंगे मारनी शुरू कर दी हैं। अपना भी मन होता है आलीशान गाड़ी चलाने का। सोच रहा हूँ नौकरी छोड़ कर मनोज के व्यवसाय में भागीदार बन जाऊँ। भारत जैसे देश में इस तरह का धंधा तो बंद होने से रहा और इससे अच्छी नौकरी-सुरक्षा और कहाँ मिलेगी। मेरी तो सलाह है कि आप भी हमारे गुट में शामिल होने की सोचें। मेरे प्रस्ताव के बारे में अपने विचार टिप्पणी के माध्यम से छोड़ दें।
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- अतुल श्रीवास्तव
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