आदर्श
- अतुल श्रीवास्तव
- May 19, 2020
- 5 min read
Updated: Aug 15, 2023

15 अगस्त का दिन था और गाजीपुर के एक छोटे से पर देशभक्ति से लिपे पुते नेता श्री सत्य नारायण पाँडे धोती संभालते हुये नगर के एक मात्र राजकीय इंटर कालेज की तरफ चल पड़े तिरंगा फहराने के लिये।
पाँडे जी कालेज के मैदान में पहुँचे, सारे अध्यापकों ने डंडी हिला हिला कर राक्षसी बच्चों को कक्षा के अनुसार कतारों में सजाया और फिर नेता जी ने पजामे के नाड़े की बनी हुई डोरी को खींच कर तिरंगा लहराया। झंडे के खुलने से उस में से तकरीबन आधा दर्जन सूखे हुये गेंदे के फूल गिरे, बच्चों ने पूरे उत्साह के साथ तालियाँ बजाईं, और फिर पाँडे जी ने हर साल की तरह भाषण देना शुरू कर दिया। पाँडे जी ने पूरे जोश में आकर बच्चों को भारत के महान सपूतों और नेताओं के बारे में बताना शुरू कर दिया – गाँधी, नेहरू, आज़ाद, भगत सिंह, सरदार पटेल और न जाने कौन कौन लोग। बैठे अध्यापकों ने धीरे से अपनी अपनी जेबों से धूप के चश्मे निकाले और उन्हें अपनी आँखों के ऊपर सरकाना शुरू कर दिया। दूसरी ओर जमीन पर बैठे बच्चों ने जमीन से घास उखाड़नी शुरू कर दी, जमीन से चीटें उठा उठा कर सामने वाले की कालर के भीतर डालने शुरू कर दिये और कुछ महा उपद्रवी बच्चों ने ख़ी ख़ी कर के चुपचाप बैठी छात्रों की पूरी भीड़ को हँसाने का जिम्मा ले लिया।
खैर, पूरी पच्चीस मिनट की यातना के बाद पाँडे जी के नीरस भाषण का खातमा हुआ और इस बार सभी ने तिगुने जोश के साथ तालियाँ बजाईं। और, फिर वो घड़ी आ गयी जिसका सभी छात्रों को सुबह से इंतजार था – मोतीचूर के लड्डुओं के बाँटने का समय। छोटी कक्षा के सभी बच्चे राष्ट्र गान से भी ज्यादा उत्साह के साथ चिल्लाने लगे – हगो सर, हगो सर। बच्चों की चीख पुकार सुन कर संस्कृत के आचार्य हगो (पूरा नाम हर गोविन्द त्रिपाठी – नाम का छोटा रूप ह . गो. त्रिपाठी यानि कि हगो) बाँये हाथ में मोतीचूर के लड्डुओं से भरी लोहे की बाल्टी लेकर अवतरित हो गये। सभी छात्र गण दोनों हथेलियों से दोना बना कर लार टपकाते हुये खड़े हो गये। हगो सर बाल्टी में हाथ डालते, एक लड्डू निकालते और सामने भिखमंगे की तरह फैले हुये हाथों में दूर से टपका देते। बीच बीच में हगो सर एक आधा बदकिस्मत बच्चे को झड़प देते – दिवाकर, लड्डू खा क्यों नहीं लेता? जेब में क्यों डाल रहा है? तो दिवाकर तत्परता से उलट कर जवाब देता – सर, ये सब नाटक खतम हो जाने के बाद हम सब मैंदान में जा कर क्रिकेट खेलेंगे। आज मैं बॉल लाना भूल गया हूँ। अब ये लड्डू ही बॉल के काम आयेगा।
सारे लड्डू भी बँट गये। छात्र गण गधे के सर से सींग की तरह गायब होने ही वाले थे कि प्राचार्य महोदय ने एक मनहूस घोषणा कर दी – बच्चों, श्री सत्य नारायण पाँडे जी आज के इस पावन पर्व पर तुम सबसे एक एक कर के मिलना चाहेंगे। | सभी छात्रों ने एक जुट हो कर मन ही मन पाँडे जी की कई गुजर चुकी और कई आने वाली पीढ़ियों को सतरंगी गालियों से धोया और मन मार कर वापस अपनी अपनी जगह आ कर खड़े हो गये।
पाँडे जी अपनी मनभावन हँसी, जो कि छात्रों को रावण की कुटिल मुस्कान से भी ज्यादा भयावह दिख रही थी, के साथ मंच से नीचे उतरे और बढ़ चले सामने लगी हुई कतारों की तरफ। पहली कतार थी कक्षा आठ के छात्रों की थी।
पंक्ति में सबसे आगे खड़ा था संजीव (प्यार का नाम मोची क्यों कि बापू की जूते की दुकान थी)। नेता जी ने सर पर वात्सल्य की भावना से हाथ फेरते हुये पूछा, “बेटे बड़े हो कर क्या बनना चाहोगे?” संजीव के अपने बापू ने आज तक ये सवाल उससे नहीं पूछा था क्यों कि उन्हें पता था कि आखिरकार बेटे को पुश्तैनी जूते की दुकान ही चलानी थी। इस सवाल को सुनते ही बच्चा जोश से भर उठा और बोल पड़ा, “सर मैं तो शाहरुख खान बनूँगा, किंग खान, बादशाह खान। ”
पाँडे जी बोल उठे, “हाँ हाँ क्यों नहीं बहुत नाम कमाया है उसने। ” पाँडे जी अपना वाक्य पूरा करते उससे पहले ही बगल में खड़ा राजेश तैश में आ कर चिल्लाया, “क्या बे शाहरुख? वो तो ससुरा हकला हकला के बोलता है। मैं तो बड़ा हो कर आमिर खान बनूँगा। क्या धाँसू एक्टिंग करता है। पीके में क्या काम किया था अपने हीरो ने।”
अब भला प्रवीण कैसे चुप रहता? उसने भी अपने दिल की बात खोल दी, “अबे आमिर तो लड़की लगता है। मैं तो सलमान या संजय दत्त बनूँगा। बॉडी देखी है अपुन के भाई की? दाँयी बगल में श श शाहरुख और बायीं बगल में आमिर को दबा कर उनका भरता बना दे।” अब तक तो सूखी घास में आग पूरी तरह से लग चुकी थी – मैं ह्रितिक, मैं अभिषेक और बीच बीच में मैं सचिन और मैं विराट की आवाजें भी आई।
पाँडे जी ने बच्चों से मिलने का अपना विचार फटे हुये कच्छे की तरह त्याग दिया और निराशा में मुंडी हिलाते हुये वापस पलट लिये। अभी कुछ ही कदम आगे बढ़े थे कि शोर शराबे और चिल्ल-पों के बीच में से एक मिमियाती हुई सी आवाज सुनायी दी, “मैं बड़ा होकर अशोक बनूंगा।” खीज खाये हुये पाँडे जी ने झुँझलाते हुये पूछा, “अब ये अशोक ससुरा कौन है? पहले तो इसका नाम कभी नहीं सुना।” एक बार फिर से मिमियाती हुई आवाज सुनाई दी, “अशोक पुराने जमाने में बहुत बड़ा राजा था।”
पाँडे जी के रेगिस्तान से तपते हुये लाल चेहरे पर आशा की फुहार गिर पड़ी और बाँछे खिलाते हुये उल्टे पाँव वापस आ गये। भीड़ में खड़े हुये सींकिया सुधाकर, जिसकी आँखों पर बोतल के पेंदे की तरह के लेंसों का चश्मा चढ़ा हुआ था, की ओर गर्व से देखा और अपनी आँख से गिरते हुये आँसुओं को कुर्ते की बायीं बाँह से पोंछते हुये कहा, “जुग जुग जियो बेटा। धन्य हैं वो माँ बाप जिन्होंने आज कल के जमाने में ऐसे सपूत को जन्मा है। बेटा बताओ कि तुम अशोक क्यों बनना चाहते हो।”
सुधाकर का सीना अपनी तारीफ सुन कर चौड़ा हो गया और वो सर ऊपर उठा कर शुरू हो गया, “सर परसों ही मैंने पल्लव के घर डी. वी. डी. पर अशोक देखी। बड़ी चीज़ रहा होगा तभी तो शाहरुख उसका रोल करने को मान गया। और, बाई गॉड, क्या फाईट करता था – हज़ारों को तो ऐसे ही काट डाला। आल इन वन था – गाता भी बढ़िया था – रात का नशा अभी आँख से गया नहीं। और, सर कितनी खूबसूरत खूबसूरत लड़कियों के साथ डांस किया करता था – और लड़कियाँ भी क्या छोटे छोटे मस्त कपड़े पहना करती थीं उसके जमाने में ...”
पाँडे जी बिना पूरा इतिहास सुने ही आगे बढ़ चले। पाँडे जी सामने लगे नीम के पेड़ पर अपना सर मारने में लग गये और हगो अपनी नौ बित्ते की छड़ी लेकर बेचारे सुधाकर के ऊपर पिल पड़े।
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- अतुल श्रीवास्तव
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