विरह
- अतुल श्रीवास्तव
- Jul 13, 2020
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Updated: Mar 29, 2024

सखि तू क्या जाने पीर पराई,
तूने तो कबहूँ न प्रीत लगाई।
विभावरी हिय अनल जलाये,
नयन तुषार बह दहन बुझाये,
विरह वेदना तू क्या समझे,
अक्षि अनुरागी तोरे पी से न उलझे।
दिन कर दिनकर नभ सिंदूरी बिखराये,
कम्पित कर मोरी माँग पर जाये,
पीड़ित करता ये एकाकीपन,
तन सखियों संग, भ्रमित रहे मन।
चंदन तरु प्रवात मन को न भाये,
भानु उदय हो नित एक आस जगाये,
नव-वधु व्याधि को तू कैसे जाने,
तेरे मन न बसते गीत सयाने।
प्रियतम का जब संदेशा आता,
उर द्रुतगामी हय तब बन जाता,
शुष्क अधरों पर लाली छा जाती,
अँखियाँ भी मादकता छलकाती।
संदेशा कहता, हैं पी लेने आते,
कपोल कमल समान खिल जाते,
मैं क्यों बैठी तुमको ये समझाने,
आलिंगन का सम्मोहन बतलाने?
अधर, कपोल, मस्तक पर चुम्बन,
भाव जागृत, पुलकित तन मन,
सखि, पी संग मुझको अब जाना,
दुखदायी विरह गीत न अब गाना।
सखि, तू विस्मित तुझे छोड़ क्यों मैं जाती,
मात पिता की क्या याद न आती?
कैसे समझाऊँ अद्भुत ये भावना,
डूबे तू भी प्रेम जलधि में, करती बस मैं यही कामना।
पीर : पीड़ा
विभावरी : तारोंवाली रात
हिय : हृदय
अनल : अग्नि
तुषार : ओस
अक्षि : आँख
प्रवात : हवा
व्याधि : शरीर/ मन को अस्वस्थ करने वाली अवस्था
उर : वक्ष
हय : घोड़ा
कपोल : गाल
जलधि : समुद्र
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- अतुल श्रीवास्तव
[फ़ोटो: जमाईका]
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