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ये डे, वो डे

  • अतुल श्रीवास्तव
  • May 19, 2020
  • 8 min read

Updated: Aug 12, 2022


टड़ाँग, ढड़ाँग, छन्न, टन्न – भगवान बचाये बगल में रहने वाले गुप्ता दंपति से | सुबह सुबह नींद खोल दी बर्तनों की टनटनाहट से | पता नहीं बर्तन धोये जा रहे हैं या बर्तनों से किसी को धोया जा रहा है | उठ कर मैं बालकनी की ओर चला ये पता करने के कि बगल वाले फ्लैट में हो क्या रहा है | बाहर जाकर देखा गुप्ता जी कोने में अपना सर पकड़ कर खड़े हैं | देखने से तो लग रहा था कि सर में चोट लगी हुई है | मैंने चिंता दिखाते हुए पूछा, “ये चोट कैसे लग गयी?”


“अरे कुछ नहीं फिसल कर बर्तनों पर गिर गया | ”


“गुप्ता जी बर्तनों पर गिर गये कि बर्तनों को ऊपर गिरा दिया गया | ”


बात आगे बढ़ती उससे पहले ही श्रीमति गुप्ता बाहर आकर मानसून के घने काले बादल की तरह गुप्ता जी पर बरस पड़ीं | जवाब में गुप्ता जी भी भूखे शेर की तरह दहाड़ पड़े | नतीजे में श्रीमति गुप्ता तीन चार आँसू टपकाते हुये अंदर चली गयीं | यह सब देखने के उपरांत मैंने एक आदर्श भारतीय पड़ोसी की तरह गुप्ता जी को बिन माँगे मुफ्त की सलाह दे दी, “क्या करते हो गुप्ता जी | बीबी को प्यार से रखा करो | अब अंदर जाकर प्यार से ज्वालामुखी को शांत करो | ”


गुप्ता जी बोले, “अरे भाई आज कोई वेलंटाईन डे है क्या? प्यार व्यार, मनाना जताना सब कर लिया कल | अब बैक टू नारमल लाईफ | ”


अचानक मेरे पेट में फिर से गुड़गुड़ाहट हुई और मैं लपक कर बड़े घर की ओर भागा | अब आप लोगों से क्या छुपाना - लखनऊ नगरी में बाहर जाकर रेस्टोरेंट वगैरह में खाने का प्रचलन कोई बहुत ज्यादा तो है नहीं | रेस्टोरेंट वाले हर शनिवार को थोक में खाना बनाते हैं इस आशा के साथ कि सप्ताहांत में शायद भीड़ भड़्ड़क्का हो | ऐसा होता है नहीं अतः वही खाना कई दिनों और कभी कभी तो कई महिनों तक चल जाता है | अच्छी तरह से खमीर उठे हुये खाने का सबसे अधिक उपभोग होता है वेलंटाईन डे के दिन – कारण तो आप सभी अच्छे से ही जानते हैं | बस कल रात मैं भी पास के ही मुग़लई रेस्टोरेंट में इसी तरह के खाने का भोग लगा आया |


ये खमीर उठे हुये खाने बड़े तुनक मिजाज होते हैं – बस लड़ पड़े पेट से कि नहीं रहना है तुम्हारे साथ | पेट महराज भी अकड़ गये – नहीं रहना है तो दफा हो जाओ यहाँ से | सुलह कराने वाली मिस पुदीन हरा भी नहीं थी अतः पेट जी के दफा आदेश के कारण रात में कई बार.... रात भर की दौड़ भाग की वजह से तबियत थोड़ी ढीली लग रही थी इसलिये “धपजी” (धर्म पत्नी जी) से कहा कि आज ऑफिस जाने का कार्यक्रम स्थगित | धपजी थोड़ा सा आपत्तिजनक लहजे में बोलीं, “तो क्या सारे दिन घर पर ही पड़े रहोगे ? ”


“नहीं घर पर पड़े पड़े क्या करूँगा | सोचता हूँ साईकिल उठा कर आस पास का चक्कर लगा आऊँ | इसी बहाने थोड़ी वर्जिश हो जायेगी | ” हाथ मुँह धोकर पेट के बिगड़े हुये मूड को ध्यान में रखते हुये कॉर्न फ्लेक्स का नाश्ता किया, धपजी ने बाजार से सब्जी और परचून लाने की लिस्ट हाथ में जबरन थमा दी, और मैं अपनी साईकिल उठा कर निकल पड़ा |


अभी गली के कोने तक ही पहुँचा था कि संजीवनी मेडिकल स्टोर के मिश्रा जी ने पीछे से टोक दिया, “सुबह सुबह साईकिल उठा कर कहाँ चल दिये श्रीवास्तव जी | ”


“बस यहीं आस पास ऐसे ही....”


“क्यों आज कोई खास बात है क्या?”


अब ये भी कोई बात हुई कि किसी खास वजह से कोई काम किया जाये | मैंने बनावटी हँसी के साथ कहा, “आपको पता नहीं आज आवारागर्दी डे है | आज के दिन पुरुष जाति के लोग सुबह से उठ कर आवारागर्दी करते हैं | खैर मिश्रा जी ये नुक्कड़ पर कूड़े का ढेर बड़ा फल-फूल रहा है | इसको कब हटवा रहे हैं?”


मिश्रा जी ने मौके का फायदा उठाते हुये कटाक्ष के साथ उत्तर दिया, “हटवा देंगे ‘कूड़ा-उठाओ डे’ के दिन | ”


“ये कौन सा डे है?”


“इस दिन गली मुहल्लों से कूड़ा या मलबा हटाया जाता है | ”


“अब आपका ये ‘कूड़ा-उठाओ डे’ कब आता है?”


“हर दिवस की तरह ये भी साल में एक बार आता है | ”


“वो तो ठीक है | पर कब?”


“‘कूड़ा-उठाओ डे’ ‘दौरा डे’ के ठीक अगले दिन आता है | ”


“’दौरा डे’?”


“हाँ भई हर दिवसों की भाँति ये ‘दौरा डे’ भी साल में एक बार आता है | इस दिन कोई नगर अधिकारी या मंत्री नगर के हालात का मुआईना करने दौरे पर निकलता है | ”


“अब ये ‘दौरा डे’ किस दिनाँक को पड़ता है?”


“अतुल जी ये ‘दौरा डे’ अंग्रेजी नहीं हिन्दु कैलेंडर का पालन करता है | होली और दीवाली की तरह इसकी भी तिथि कोई निश्चित नहीं है | ”


बात आगे चलती उससे पहले ही एक युवक ने मिश्रा जी को पीछे से टोक दिया, “आपके पास अपच की कोई दमदार दवा है?”


मैंने पूछा, “क्यों, वेलंटाईन डे के दिन मुग़लई खाना खा आये क्या?”


“आपको कैसे पता?”


बिना जवाब दिये ही मैं साईकिल खिसकाते हुआ आगे बढ़ चला | साईकिल पर बस चढ़ने ही वाला था कि नीचे के फ्लैट वाले जौहरी जी का दस वर्षीय पुत्र अकेला ही स्कूल जाता हुआ दिखाई दे गया | अपने हाथ से लम्बी टाई लटकाये और अपने वजन से भारी बस्ता उठाये टिंकू (घर का नाम) बहती हुई नाक को लहराती हुई टाई से पोंछते और ‘झलक दिखला जा ...’ गुनगुनाते हुये अपने ही में मस्त चला जा रहा था | मैंने उसको रोक कर पूछा, “टिंकू अकेले? पापा नहीं हैं क्या घर पर?”


“पापा का पेट खराब हो गया है | कई बार पाकिस्तान के चक्कर लगा चुके हैं | ”


“कल रात को मुग़लई खाना खाने गये थे क्या?”


“हाँ | पर आपको कैसे पता?”


“वो छोड़ो | तुमको स्कूल की देर हो रही है | चलो मैं साईकिल से छोड़ देता हूँ | ”


टिंकू को साईकिल पर बैठा कर उसके स्कूल पहुँचा, पर बेचारे को फिर भी देर हो ही गयी | बाहर ही प्राचार्या जी मिल गयीं | क्रुद्ध वाणी में बेचारे टिंकू पर शुरू हो गयीं, “यंग मैन यू शुड बी अशेम्ड ऑफ योरसेल्फ। कमिंग सो लेट? आई कैन नॉट टालरेट सच काईंड ऑफ बिहेवियर | यू नो पंक्चुऐलिटी इस दि की फॉर सक्सेस | यू विल बी पनिश्ड फॉर दिस | यू मे गो टु योर क्लास रूम नाओ | ”


होनहार बिरवान के होत चीकने पात – चीकने पात तो पता नहीं पर ये बिरवान चिकना घड़ा जरूर निकला | ‘झलक दिखला जा ...’ का जाप करते हुये अपनी कक्षा की ओर चला गया | उसके जाते ही मैंने प्राचार्या महोदया से कहा, “मैंने बच्चे के सामने कहना उचित नहीं समझा, पर क्या आपको ये नहीं लगता कि बच्चों से हिन्दी में बात करनी चाहिये?”


“करते हैं न?”


“पर अभी अभी तो आप उसको अंग्रेजी में ही भला बुरा कहे जा रही थी | ”


“ऐसा नहीं है | हिन्दी में बात करते हैं न ‘हिन्दी डे’ यानि कि ‘हिन्दी दिवस’ के दिन | उस दिन सारे बच्चों को पूरे दिन हिन्दी में बोलने की छूट होती है | ”


मैं कुछ और कहता उससे पहले ही प्राचार्या जी ‘इक्सक्यूज़ मी’ कह कर वहाँ से नदारद हो गयीं | क्या करता, मैं भी साईकिल पर उछल कर चढ़ गया और पैडल मारता हुआ वहाँ से निलक पड़ा | अभी सौ मीटर ही गया होऊँगा कि सड़क पर पड़ी कील ने पीछे के टायर में छेद कर के उसकी हवा निकाल दी | अपने नगर वासियों की इसी बात से मुझे बहुत कोफ्त होती है। भाई लोगों सड़क पर जी भर के कूड़ा फेंको, तबियत से थूको या मूतो, पर ये कील शील न फेंका करो | टायर का पंचर जेब में पड़े बटुये में भी छेद कर देता है | खैर पास में ही पंचर जोड़ने वाली दुकान दिख गई | पास जाकर अंडी बंडी में बैठे मिस्तरी जी से कहा, “भैय्या जरा पंचर जोड़ दो | ”


“अबे ठिल्लू जरा बाहर आ | इन साहब का पंचर जोड़ दे | ”


“मैं पंचर नहीं हूँ | साईकिल के टायर का पंचर जोड़ना है | ”


“एक ही बात है साहब | ”


ठिल्लू जी बाहर आये | ये क्या ठिल्लू तो मात्र दस या ग्यारह साल का लड़का निकला | मैंने मिस्तरी भाई से कहा, “ये तुम्हारा लड़का है?”


“हाँ, मेरा सगा लड़का है - मेरी इकलौती सगी बीबी का | ”


“तो इसको पढ़ाने की जगह इससे मजदूरी करवाते हो? इसको एक बच्चे की तरह पालो | ”


“करते हैं न साहब – चिल्ड्रेंस डे यानि कि बाल दिवस के दिन | मैंने बोल रखा है – बाल दिवस के दिन खुल्ली छूट | जो चाहे करो | पर साहब ये ससुरा उस दिन स्कूल जाने के बजाय मलिका शेहरावत की पिक्चरें देखना ज्यादा पसंद करता है | अब बताईये इसमें मेरा क्या दोष है | ”


पंचर जुड़ने के बाद मैं फिर से चल पड़ा | ये लीजिये मोहल्ले की दस फीट चौड़ी सड़क पर जाम | साथ में ढिशुम ढिशुम की आवाजें आ रहीं थी | मैंने कोने में खड़े एक तमाशबीन से पूछा, “ये क्या हुड़दंग मचा हुआ है यहाँ पर | ”


“आपको पता है आज इंटरनेशनल पीस डे यानि कि अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस है? उसी का सड़क के बीचों बीच से जुलूस निकल रहा था | कुछ वाहन चालकों ने जुलूस को जगह नहीं दी – बस, हाथापाई और लातापाई शुरू हो गयी | ”


“मुझे तो लगता है कि ये पीस डे (शांति दिवस) का जुलूस नहीं बल्कि पीस दे (जैसा कि चक्की में पीस दे) का जुलूस है | ”, टिप्पणी करते हुये मैं बीच बीच से जगह बनाता हुआ भीड़ से निकल भागा |


मुझे पता ही नहीं चला और मैं साईकिल चलाते चलाते लखनऊ विश्वविद्यालय के सामने आ पहुँचा | लीजिये यहाँ भी एक कोने में लातापाई हो रही थी | वैसे लखनऊ विश्वविद्यालय में लातापाई का न दिखना अनहोनी होता है | क्या करें आदत से मजबूर एक सच्चे भारतीय नागरिक की तरह मैं भी तमाशे का हिस्सा बन गया, “अरे भाई ये किसकी पिटाई कर रहे हो तुम लोग?”


“प्रोफेसर सिन्हा की | ”


“छि छि | शरम नहीं आती है अपने गुरु की पिटाई करते हो?”


घूँसा चलाते हुये एक छात्र ने जवाब दिया, “शरम क्यों आयेगी | आज कोई टीचर्स डे थोड़े ही है | वैसे भी ये हमारे राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं और ये हमारी प्रैक्टिकल की क्लास चल रही है | ”


मैंने मन ही मन सोचा कि बहुत हो गयी साईकिल चलाई आज | वापस घर की ओर का रुख़ किया और पैडल मारते हुये घर पहुँच गया | घर पहुँच कर सोफे पर पैर फैलाये और हाथ में अखबार लेकर पसर गया | धपजी को मेरा आना सुनाई दे गया | आकर पूछा, “सब्जी कहाँ रखी है?”


“हत्तेरे की | वो तो लाना ही भूल गया | ”


“तुम भी न | मैं तो तंग आ गयी हूँ तुमसे | ”


“मुझसे तंग? मैंने तो सुना था कि आदमी की सिर्फ बनियान और कच्छी ही तंग हुआ करती हैं | और हाँ आज तुम मुझ पर चिल्ला नहीं सकती हो | ”


“क्यों? ऐसा क्या है आज?”


“आज हसबेंड डे यानि कि पति दिवस है | आज के दिन कोई भी पत्नी अपने पति को डाँट पीट नहीं सकती है| ”


“ऐसा क्या? तो ये लो पकड़ो घर में पड़ी हुई इकलौती लौकी | इसे छील कर अपने लिये बनाओ कोफ्ते | मैं चली शॉपिंग करने क्यों कि आज शॉपिंग डे भी है | ”


लगता है मुझे अब आप सब से विदा लेनी पड़ेगी क्यों कि धपजी वास्तव में शॉपिंग के लिये निकल गयीं है और मुझे उठ कर पेट में उछल कूद कर रहे चूहों के लिये लौकी का कुछ बनाना पड़ेगा | ऐसे हालात में मुझे सिर्फ एक ही डे याद आ रहा है – मन्ना डे | लखनवी मियाँ लगाओ मन्ना डे के दर्दीले गीत और लग जाओ लौकी छीलने में|


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- अतुल श्रीवास्तव

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-अतुल श्रीवास्तव

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