प्रदूषण
- अतुल श्रीवास्तव
- Jan 16, 2024
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Updated: Feb 6, 2024

कोई आग जलाये जा रहा है बस अपनी ही अकड़ में,
हर कोई घुट घुट कर जिये जा रहा है काले धुँए की जकड़ में|
इंसा को इंसा न दिखता धुँए की परतें इतनी घनी हैं,
न दिखती वो बस्तियाँ जो फुटपाथों पर बसी हैं|
न दिखती छोटी हथेलियाँ जो कारों के शीशों से हैं चिपकी,
न दिखती वो बूंदें जो सड़क पर पड़े बुड्ढे की आँखों से हैं टपकी|
ये धुँआ इतना घना है कि जो सामने है वह भी न दिखता,
आदम हो गया ऐसा कि जो नहीं है उसी के लिये है लड़ता|
इस धुँए में घुला कोई ऐसा जहर है,
किसी को बस दिखता काफिरों का शहर है|
और किसी को दिखते हैं चारों तरफ जिहादी,
धुँए में एक नशा है, बनाये सबको दंगा-फ़सादी|
लग गई है लत हमको काले नशीले जहर की,
न नीले आसमाँ की जरूरत, न डर अब कहर की|
कहाँ है वो हिम्मत जो नीला आसमाँ बटोर लाये,
और है कहीं वो फूँक जो काला धुँआ उड़ाये?
कोई आग जलाये जा रहा है, जहर पिलाये जा रहा है,
हम पिये जा रहे हैं, एक मृगतृष्णा में बस जिये जा रहे हैं|
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- अतुल श्रीवास्तव
[फ़ोटो: अल्लेपे, केरल, भारत]
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