मानव
- अतुल श्रीवास्तव
- Jan 18, 2024
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Updated: Feb 5, 2024

मैं उसके आँगन में लहराता था,
धूप लू में बाहें फैला, आँचल से कुटिया सहलाता था।
अब गगन चूमती कुटियों की छाँव में पलता हूँ,
कब पड़ेगा वार आरियों का, यही सोच कर डरता हूँ॥
- वृक्ष
लहरा लहरा आँचल से अपने, उसके मैले तन को धोती थी,
प्यार भरे इस आँचल में उसके गंदे कर्मों को ढोती थी।
अब उस से नम आँखों से कर बद्ध निवेदन करती हूँ,
साफ करो अब तुम तन मेरा बस इसी आस से बहती हूँ॥
- गंगा
जटाओं से भेद बादल, मैं उसकी प्यास बुझाता था,
गोदी में फल फूल लिये उसके मन को बहलाता था।
मेरे ही कंधे पर चढ़ वो काट रहा मेरा तन मन,
अब भेद न पाऊँ बादल जो विचरण करते उच्च गगन॥
- पर्वत
लम्बे हाथों को फैला कर उन सब की रक्षा करता था,
मानव के तीर कमानों से बचा उन्हें मैं रखता था।
मेरे ही हाथों को काट काट वो मुझको कुचले जाता है,
मुझको और मेरे लोगों के शव से अपना भवन सजाता है॥
- अरण्य
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- अतुल श्रीवास्तव
[फ़ोटो: मौनयूमेंट वैली, अरिज़ोना, यू एस ए]
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