पैंगांग
- अतुल श्रीवास्तव
- Oct 18, 2021
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Updated: Mar 29, 2024

मैं, तूलिका और शार्वनी 2008 में लद्दाख गये थे। दस दिन की इस यात्रा में एक दिन रखा गया पैंगौंग के लिये। उन दिनों लेह से पैंगौंग की सड़क बहुत ही खराब हुआ करती थी इस लिये लेह से पैंगौंग पहुँचने में साढ़े पाँच से छः घंटे लग जाते थे। पैंगौंग में रुकने की कोई व्यवस्था न होने के कारण अधिकतर लोग सुबह जा कर शाम तक वापस आ जाया करते थे - सुबह साढ़े छ्ह बजे के आस पास लेह से निकलो, बारह से साढ़े बारह बजे पैंगौंग पहुँचो, वहाँ तीस से पैंतालीस मिनट बिताओ, और वापस लेह शाम को छह से साढ़े छह बजे तक आ जाओ। पैंगौंग पहुँचने के करीब 10 या 15 किमी पहले सड़क तकरीबन नदारद ही थी और रास्ते में कार को एक या दो पहाड़ी पानी के बहाव को पार करना होता था। दोपहर होते होते बर्फ के अधिक पिघलने के कारण इनमें पानी का बहाव बढ़ और तेज हो जाता था, इस लिये सभी की यही कोशिश होती थी कि अधिक दोपहर होने से पहले ही इन जल-धाराओं को पार कर के वापस आ जाओ क्यों कि पैंगौंग में रुकने के लिये कुछ भी नहीं था।

[2008 में पैंगांग जाने वाली सड़क]
हम लोग लेह में एक ट्रैवल ऑपेरेटर के पास टोयोटा क्वालिस और ड्राईवर बुक कराने गये। बंदा खाली था और मेरे पास भी कोई खास काम नहीं था, सो उसके साथ बैठ कर गप्पें मारने लगे। मैंने कहा कि वैसे मेरा मन तो है कि रात पैंगौंग के किनारे बिताई जाये। उसने बताया कि चीन की सीमा से 28-30 किमी पहले पैंगौंग के किनारे एक गेस्ट हाऊस है जहाँ वो हमारे रात में रुकने का इंतज़ाम करवा सकता है। नेकी और पूछ-पूछ, हमने तुरंत हाँ कर दी और दो दिन बाद का कार्यक्रम बन गया।
हम लोग सुबह आराम से आठ बजे लेह से निकले। पैंगौंग के रास्ते में पड़ने वाली एक जल-धारा में हमारी कार फंसी, पर धक्का मार के किसी तरह निकल गई। हम लोग तकरीबन डेढ़ बजे पैंगौंग पहुँचे। झील से करीब 100 मीटर ऊपर चारों ओर से ढका एक बड़ा सा तम्बू था जो कुछ लद्दाखी आदमी चला रहे थे आने जाने वालों के भोजन के लिये। भूख तो हमें भी लगी थी, इसलिये रुक गये खाना खाने। पर हमारा ड्राईवर बार बार हमें टोंक रहा था कि जल्दी चलो - गेस्ट हाऊस अभी भी दूर है, कोई पक्की सड़क नहीं है, रास्ते में कई जल-धारायें पार करनी पड़ेंगी, दोपहर हो रही है और इनमें पानी बढ़ना शुरू हो जायेगा, अगर पानी बढ़ गया तो पार करना नामुमकिन हो जायेगा।
ड्राईवर की बातों से सहम कर हमने जल्दी जल्दी खाना गटका और कार में बैठ गये गेस्ट हाऊस की ओर जाने के लिये। रास्ते में एक या दो छोटी छोटी धाराओं को कार फर्राटे से पार कर गई। हम लोग करीब चार या पाँच किमी गये होंगे कि कार एक बड़ी धारा में फंस गई। दूर दूर तक कोई प्राणी न दिखाई दे। मैं और ड्राईवर 15-20 मिनट तक लगे रहे पर कार एक इंच तक न हिली। धीरे धीरे पानी का स्तर और बहाव तेजी से बढ़ने लगा। ड्राईवर ने कहा कि अब हम सबके लिये बेहतर होगा कि हम वापस उसी टेंट की ओर जायें जहाँ खाना खाया था और वहाँ से किसी को भेजें। ड्राईवर वहीं कार के पास इंतज़ार करेगा।
खैर, मैंने, तूलिका और शार्वनी ने अपनी 4 किमी की पैदल यात्रा शुरू करी वापस टेंट की ओर। तेरह से चौदह हजार फीट की उँचाई पर पैदल चलना भी बहुत ही मेहनत का काम लग रहा था। हम लोग करीब 2 किमी ही गये होंगें कि पीछे से एक मारुति जिप्सी आती हुई दिखी। हमने जिप्सी को रोका - उसमें चार या पाँच लद्दाखी आदमी थे जो दूध के बड़े बड़े कंटेनर ले कर कहीं जा रहे थे। हमने उन्हें सारा किस्सा बताया कि कार पानी में फंस गई है और हमें वापस टेंट की ओर जाना है। उन्होंने तूलिका और शार्वनी को आगे बिठाया और आगे बैठे सारे आदमी और मैं पीछे दूध के कंटेनरों के साथ बैठ गये। इन आदमियों ने शायद पिछले कई सालों में नहाया नहीं था। उन आदमियों ने हमें टेंट पर उतारा और टेंट वाले से कुछ रस्सियाँ ले कर वापस चले गये हमारे ड्राईवर और कार को पानी से निकालने।
करीब एक-डेढ़ घंटे बाद हमारे ड्राईवर साहब कार समेत सही सलामत वापस आ गये। अब तक करीब चार-साढ़े चार बज गये थे। ड्राईवर ने कहा कि गेस्ट हाऊस की ओर जाना असम्भव है क्यों कि सभी धाराओं में पानी काफी बढ़ गया है और वापस लेह जाना भी ठीक न होगा क्यों कि वापस जाते समय पड़ने वाली जल-धारा पार करना खतरनाक होगा। इसलिये हम सबको रात वहीं बितानी पड़ेगी।
अब रात को सोया कहाँ जाये? जो लोग टेंट लगा कर अपना ढाबा चला रहे थे, उन्हीं लद्दाखी लोगों ने पहाड़ी के कुछ ऊपर चार-पाँच छोटी छोटी कोठरियाँ बना रखी थीं। करीब10फीट x 8फीट की सफेद कोठरियाँ थीं जिनमें एक खिड़की थी, कोई फर्नीचर नहीं, पानी और बिजली नहीं और न ही कोई शौचालय। ये लोग खुद कभी कभी इन कोठरियों में रात में रुक जाते थे या उन लोगों को दे देते थे जो किसी कारणवश पैंगौंग में फँस जाते थे। आज हम फँस गये। टेंट के मालिक ने एक कोठरी हमारे लिये खोलते हुए कहा कि आज कई महिनों के बाद कोई इन कोठरियों में रुकने जा रहा है। जैसे ही कोठरी का दरवाजा खुला तो दिल बैठ गया, ठंढी नंगी फर्श और कुछ भी नहीं। उसने दरवाज़ा खोलने के बाद कहा - अभी मैं आपके लिये गद्दा, रजाई और तकिये ला देता हूँ। उसने कई सारे मोटे मोटे गद्दे, रजाईयाँ और तकिये लाकर जमीन पर पटक दिये, और साथ में दी एक टॉर्च और पानी से भरी दो प्लास्टिक की बोतलें - यहाँ बिजली नहीं है, रात में टॉर्च से काम चलाना पड़ेगा। पानी है शौचालय के लिये। आप वो जो पचास मीटर ऊपर लकड़ी के खड़े पटरे देख रहे हैं, वही शौचालय है। जमीन में गड्ढा है, उसी में करना होगा, पानी सम्भाल कर और कम इस्तेमाल करियेगा। गड्ढा तीन तरफ से लकड़ी के पटरों से ढका है, पीछे की तरफ से खुला है पर उधर से कोई आता जाता नहीं है। रात को जाना पड़े तो टॉर्च जरूर ले जाईयेगा।
हमने कोठरी की फर्श पर अपना बिस्तर लगाया। बाहर निकल कर पैंगौंग के चारों ओर लम्बी पद यात्रा करी। शाम होते होते हवा तेज हो गई और ठंड बढ़ गई, इसलिये हम सम वापस टेंट में आ गये। दो या तीन लद्दाखी आदमी उस रात उसी टेंट में रुकने वाले थे। उन्होंने गरमा गरम लद्दाखी चाय पिलाई। टेंट अंदर से बढ़िया गरम था - एक अंगीठी में लकड़ी लगातार जल रही थी। हम लोग काफी देर तक बैठ कर ड्राईवर और उन लद्दाखी आदमियों के साथ बात करते रहे। रात में खाने को चावल के साथ लद्दाखी सब्जी मिली जो कि कुछ कुछ बेसन के गट्टे की सब्जी की तरह थी। खाना खा कर हम अपनी कोठरी में आ गये सोने के लिये। हम सभी बेहद गहरी और बहुत ही आरामदायक नींद सोये उस दिन।
अगले दिन सुबह उठ कर पैंगौंग और उसके आस पास काफी समय बिताने के बाद दस बजे के आस पास लेह की तरफ वापस प्रस्थान कर दिया। आज भी जब मैं, तूलिका और शार्वनी बैठ कर पुरानी फोटुयें देखते हैं तो पैंगौंग की सुमधुर यादों की बात जरूर होती है। ये शायद मेरी सबसे स्मरणीय यात्राओं में से एक होगी।
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- अतुल श्रीवास्तव
[फ़ोटो: पैंगांग, लदाख, भारत]
बहुत रोमांचकारी अनुभव है
अत्यंत रोमांचक